Tuesday 16 August 2011

अड. दिनेश शर्माके मौलिक विचार



हमें क्या चाहिये?
लोकोपकारी पूंजीपति या भष्ट्र राजनेता, अफसर

कुछ ही दिन पहले अमेेरिका से एक खबर आयी कि वहॉं के सबसे धनवान निवेशक वारेन बुफेट ने बिल गेटस् फांऊडेशन को कोेर्इ 31 बिलीयन डालर दान में दिये. प्रसिद्ध उद्योगपति राकफेलर ने आज से एक शतक पहले अपनी समूची जायदाद लाकोपयोगी कामों के लिये समर्पित कर दी थी. दुनिया का सबसे महान नर्तक माइकल जैक्सन तो एक महान दानी था ही. इधर हमारे देश में भी विप्रो के प्रमुख अजीम प्रेमजी ने कोर्इ 2 बिलीयन डॉलर, अर्थात लगभग 9 हजार करोड़ रूपये, देश के शैक्षणिक कामों के लिये अपने ही नाम से बनाये अजीम प्रेमजी फॉंऊडेशन को दान में दे दिये. उद्योगपति जब दान कर रहे हो तो संत कैसे पिछे रहते. दक्षिण भारत के प्रसिद्ध आध्यात्मिक संत स्व. सत्य श्रीसार्इबाबा ने आंध्रप्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु की सरकारों को जलपूर्ति की व्यवस्था और राज्यों के शैक्षणिक विकास के लिये अरबों रूपये दान में दे दिये. उनके लोकोपयोगी कामों से प्रभावित होकर तमिलनाडु के भूतपूर्व मुख्यमंत्री करूणानिधी जैसे नास्तिक भी उनके भक्त हो गये. आप किसी भी शहर का दौरा लगाकर आ जार्इये. शहर के सबसे बड़े मंदिर, धर्मशालायें, स्कूल, समाज भवन या पुस्तकालयों के सामने आपको उन्हीं लोगों के नाम मिलेंगे जिन्होंने पहले तो पैसा कमाने के लिये जी तोड़ मेहनत की, दूर देशों की यात्राएँ की, अपने प्रतिस्पर्धियों से निपटने के लिये सभी चालाकियॉं की और बाद में अपनी हासिल संपत्ति का एक बड़ा हिस्सा दान में दे दिया. जितनी खुशी से उन्होंने पैसा कमाया, उससे दुगुनी खुशी से उसे त्याग भी दिया.

ऐसे में एक प्रश्न खड़ा होता है कि हम पैसा क्यों कमाना चाहते है? हम समृद्धि के शिखर क्यों छूना चाहते है? हम सब कुछ त्याग कर इस नश्वर जगत में प्रसिद्ध क्यों होना चाहते है? हमारी अमरत्व की कामना क्या हमारे डीएनए का ही हिस्सा है या वह हमारा सांस्कृतिक मूल्य है? अमरत्व की इसी कामना के लिये कोर्इ संगीतकार संगीत की नयी नयी धुनें रचता है तो कोर्इ अभिनेता अनगिनत भूमिकाओं में स्वयं को प्रस्तुत करता है. कोर्इ सचिन टेडुंलकर बीस सालों से अबाधित रूप से खेलते हुये नये नये विश्व रिकार्ड बनाता है तो कोर्इ साहित्यिक जीवन के अनेकानेक अंगों और रसों में अपनी वाणी को अभिव्यक्त करता चाहता है. एक राजा नये नये क्षेत्र जीत कर अपने राज्य की सीमाओं को बढ़ाता है तो एक संत अपने ज्ञान, विवेक और प्रेम से अपने कृपाभिलाषी भक्तों की संख्या बढ़ाता है.

र्इश्वर तो हमें बस एक बूँद के रूप में भेज देता है किंतु हम है कि एक महासागर की तरह फिर से उसमें विलीन होना चाहते हैं. उसने हमें एक बीज के रूप में भेजा था, हम किसी विराट जंगल की तरह उसे पाना चाहते हैं. विस्तार की हद तक विस्तार करते हुये बिखर जाना और सदा के लिये आनेवाले वक्त की स्मृतियों का हिस्सा बन जाना, अनादि अनंत कालों से मानवीय विकास की सबसे महान प्रेरणा रही है. हमारा प्रेम हमारे विस्तार को सहारा, प्रेरणा या दिशा देता है, इसीलिये हम प्रेम करते है, अन्यथा हम प्रेम भी क्यों करते? हम विस्तारित होने के लिये प्रेम करते है या प्रेम करने के लिये विस्तारित होते है, यह प्रश्न अपने आप से पूछिये. एक ही उत्तर मिलेगा, हमारे विस्तार के लिये प्रेम जरूरी है. प्रेम तो वह रथ है जिसमें बैठ कर हम जाना तो कहीं और चाहते है. हमारा प्रेम हमारी यात्रा को चिरस्मरणीय बना देता है, इसीलिये हम प्रेम पाना चाहते है और प्रेम देना चाहते है. किंतुु मूलभूत प्रेरणा तो अपनी सीमाएँ दसों दिशाओं में बढ़ाने की ही होती है. हम भाषा, क्षेत्र, जाति या देशों की सीमाओं को लांघकर फैलना चाहते है. नये दोस्तों से हाथ मिलाना या नये प्रतिस्पर्धियों से दो हाथ करना चाहते है. और फिर, विजय के चरम बिंदु पर हमने जो कुछ भी हासिल किया है, उससे मुक्त हो जाना चाहते है. हम स्वयं को बार बार रिक्त कर देते है ताकि नयी उर्जा के लिये अपना पात्र खाली रह सके. पुराने जमाने के ऐसे कर्इ राजाओं के किस्से आपको पुराणों में मिल जायेंगे, जिन्होंने पहले तो अश्वमेध यज्ञ के द्वारा अपने राज्य का विस्तार किया और फिर उसी यज्ञ की समाप्ति पर अपनी सारी संपदा दान में देकर फिर से रिक्त हो गये. फैलना और फिर रिक्त हो जाना, हमारे जीवन को सदा के लिये तरोताजा उर्जावान बनाकर रखनेवाला टॉनिक रहा है. अनादि अनंत कालों से मानवता इसी तरह से जिंदा रही है. जो फैलता नहीं है वह तो नष्ट होता ही है किंतु जो रिक्त नहीं होता है, वह भी अपने ही बोझ से चरमरा जाता है. जिंदगीं को अभावों ने जितना समृद्ध किया है, रिक्तताओं ने जितना भरा है, उतना मुफ्त का खिलाने से या समानता के नारे ने नहीं किया है. भारत के ब्राह्मणों को तो सदा से बनियों के घर से अनाज मुफ्त मिलता रहा किंतु इससे कभी उनकी गरीबी दूर नहीं हुयी. दरिद्र सुदामा केवल कृष्ण के जमाने की ही वास्तविकता नहीं थी बल्कि हर युग की वास्तविकता रही है और रहेगी.

जनता की गरीबी दूर करने के लिये दुनिया के कर्इ देशों में कल्याणकारी राज्य की स्थापना पर जोर दिया और पैसा कमाने के सभी नीजि प्रयासों को हतोत्साहित किया गया. किसी उद्योगपति के सीमातीत विस्तार को राष्ट्रविरोधी कृत्य माना गया. हमारे भूतपूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू तो लाभ की संकल्पना से ही घृणा करते रहे और नीजि उद्यमों को दुनिया भर के लायसेंस, कोटा और इंस्पेक्टरों के जाल में जकड़ने में अग्रगामी बने रहे. उन्होंने उद्योगपतियों के उपर ज्यादा से ज्यादा कर लगाकर जमा रकम से सरकारी उद्यमों की स्थापना की और उन्हें देश के नये तीर्थ कहा. उनकी कन्या इंदिराजी ने उनके विचारों को आगे बढ़ाने में उनसे भी ज्यादा कट्टरता का परिचय दिया और सभी नीजि बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया. परिवहन, उर्जा निर्मिती, शिक्षा, संचार और आधारभूत संरचना के क्षेत्र में व्यक्तिगत निवेश के लिये कोर्इ जगह ही नहीं रखी गयी. “व्यक्ति” यह समाज या राष्ट्र के विरूद्ध है, इसी बात को सत्य मानते हुये व्यक्ति के फैलाव या विस्ताार को कुंठित करने में कोर्इ कसर बाकी नहीं रखी गयी. नतीजतन यह देश केवल चालीस सालों में प्रतिभा और प्रयासों से कंगाल हो गया. जिनमें फैलने का सामर्थ्य था, उनके कदमों में जंजीरें थी और मुफ्त का माल खिलाने वाली सरकारी योजनाओं ने हर गॉंव में सुदामा प्रवृति के लोगों के समूह बना दिये. सुदामा इसलिये नहीं फैला कि उसे मुफ्त का माल मिल रहा था और कृष्ण इसलिये नहीं फैला कि उसके द्वारका से बाहर जाने पर पाबंदी थी. नतीजतन पैसे वाले अपने पैसे छिपाने लगे और दरिद्र रेखा के नीचे जाना सम्मान का सूचक बन गया. दानशूरता बीते जमाने की बात हो गयी और दिवालिया होना शर्म की बात नहीं रही. जो काला धन ब्रिटीश सत्ता में कहीं नहीं था वही आजादी के बाद हमारी अर्थनीति और राजनीति को नियंत्रित करनेवाली सबसे निर्णायक शक्ति बन गया. नतीजा बेहद दारूण रहा. हिंदुस्थान की प्रतिभा को जितना नुकसान मुगलों या अंगे्रजो की सामूहिक सत्ता ने नहीं पहुँचाया, उतना नुकसान नेहरू और इंदिरा की अर्थनीति ने पहुँचा दिया. ये दोनों नेता व्यक्तिगत रूप से बेहद र्इमानदार थे. इनके विरोधी भी इनका सम्मान करते थे. नेहरू जहॉं हमारे स्वाधिनता समर के लोकप्रिय नेता और बेमिसाल लेखक थे वहीं इंदिराजी बेहद बहादुर नेता थी और विश्व राजनीति में अपना रूतबा रखती थी. किंतु प्रत्येक मनुष्य में अंतर्भूत विस्तार की र्इश्वरीय प्रेरणा का ही गला घोँट देने की अपनी नीतियों के कारण, वे दोनों, उनको मिले स्वर्णिम अवसर को तबाह कर देने के अपराधी माने गये.

उद्योगपति गरीबों को लूटकर धनवान बनते है यह केवल एक मिथक है, सच्चार्इ नहीं है. वास्तव में प्रत्येक उद्योगपति अपने दौर की वस्तु या सेवा से जुड़ी किसी न किसी आवश्यकता को बाजार में प्रचलित कीमत से कम कीमत पर उपलब्ध करा कर ही पैसा बनाता है. यदि वह पहले से उपलब्ध सेवा या वस्तु को ज्यादा कीमत पर बेचेगा तो उसे कौन खड़ा करेगा? इसलिये वह प्रतियोगी मूल्य पर अपने उत्पाद प्रस्तुत करता है. इसके लिये वह नयी टेक्नालॉजी का उपयोग करके अपने उत्पाद का उत्पादन और विपणन खर्च कम करता है और सस्ती से सस्ती दरों पर अपने उत्पाद बाजार में प्रस्तुत करता है. अपने इस प्रयास में वह दो तरह से समाज को समृद्ध करता है. एक तरफ तो वह नये रोजगार निर्मित करता है वहीं दूसरी ओर वह अपने उत्पाद खरीदने वालों की कुल बचत को बड़ा कर उन्हें दूसरी वस्तुओं या सेवाओं को खरीदने का अवसर देता है. नतीजतन बाजार में वस्तु की कुल मॉंग बड़ती रहती है और सभी समृद्ध होते रहते है. उसका मुकाबला कहीं भी उस गरीब से नहीं है जिसको बचाने के लिये सारी सरकारी मशिनरी या नेता खड़े है. उद्योगपति का मुकाबला तो किसी जमे जमाये पुराने उद्योगपति से ही होता है. सारी सरकारी मशिनरी गरीब को बचाने का नारा लगाती है पर बचाती तो वह उस पुराने उद्योगपति को ही है.

दुनिया के जिस जिस देश में सरकारों की कल्याणकारी योजनायें हावी रही है, वहॉं वहॉं पर पुराने उद्यमों को बचाने के लिये नये उद्यमों के लिये दरवाजे बंद कर दिये गये. पुरानेपन के एकाधिकार को सरकारी समर्थन दिया गया. लोगों को मँहगी कीमतों पर वस्तु या सेवा खरीदने के लिये मजबूर कर दिया गया. गरीबों को नयी टेक्नालॉजी से होनेवाली संभावित बचत से इस उल्टे तरीके से वंचित कर दिया गया. और यह सभी कुछ उनको बचाने के नाम पर किया गया. इसलिये इस बात में कोर्इ दम ही नहीं है कि आजादी के बाद गरीब और गरीब और अमीर और अमीर होते चले गये. जिसतरह सचित टेंडूलकर के रिकार्ड में जुडनेवाला कोर्इ भी नया रन किसी दूसरे के हिस्से का रन नहीं होता, जिसतरह अमिताभ बच्चन का प्रत्येक नया रोल या भूमिका किसी दूसरे का शोषण करने से नहीं जन्मती, जिसतरह स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर का प्रत्येक नया गीत केवल उन्हीं को ध्यान में रखकर लिखा जाता है, जिसतरह किसी नेता के बहुत ज्यादा वोट से जीतने से किसी देश का नुकसान नहीं होता, और जिसतरह किसी साहित्यकार के बहुत ज्यादा साहित्य रच देने से बाकी के लेखकों का कोर्इ नुकसान नहीं होता है, बस ऐसे ही, किसी भी उद्योगपति के द्वारा कमाये गये प्रत्येक नये पैसे से किसी गरीब का कोर्इ लेना देना ही नहीं है. जो भी आपको ऐसा कहता है वही असली डकैत है. वह गरीब का नाम लेकर, उनके समूह बना बनाकर, उनको एक ऐसे भ्रमजाल में जकड़ लेता है, जिससे उन्हें पिढ़ीयों से मुक्ति नहीं मिल पायी हैं. यही लोग मानवीय प्रतिभा के सबसे बड़े दुश्मन हैं, यही लोग अनादि अनंत चक्रों में चलनेवाले गरीबों के शोषण के शिल्पकार हैं. जहॉं जहॉं कल्याणकारी राज्य का नाटक चला, वहॉं वहॉं पर जनता, गरीब और गरीब होती चली गयी और उद्योगपति समाप्त होते चले गये. वहॉं पर केवल नेता, तस्कर और अफसर ही धनवान से धनवान होते पाये गये हैं. यही कहानी भारत की है, यही सोव्हित रूस, वियतनाम, बर्मा, कंबोडिया, क्यूबा, पौलेंड, चीन या उत्तरी कोरिया की है. जिस किसी व्यवस्था ने मानवीय विस्तार की कामना को कुंठित किया है, उसने वास्तव में मानवता के साथ में सबसे बड़ा विश्वासघात किया है.

महान और धनवान उद्योगपति किसी भी समाज की समृद्धि को बढ़ाते है. वे न केवल स्वयं धनवान बनते है बल्कि अपने समूचे दौर को उपर उठने में सहयोग करते है. वे टेक्नालॉजी को बढ़ावा देते है, वे नये रोजगार का सृजन करते है, वे हमारी कुल बचत को बढ़ाते है और अंत में अपनी समूची समृद्धि को उसी समाज पर लुटा देते है, जिसमें उन्होंने उसे कमाया था़. वे उन मधुमख्खियों की तरह होते है जो सारी दुनिया में घूम घूम कर फूलों से पराग चुनती है, बेहतरीन कुशलता से उस शहद को बचाने के लिये छाते का निमार्ण करती है, उसमें अपनी समृद्धि का संचय करती है और अंत में उसे लुटाकर, रिक्त करके किसी नये उद्यम की तैयारी में लग जाती है. ये उद्योगपति निश्चित रूप से उन समाजवादी नेताओं या सरकारी अफसरों की तरह तो नहीं ही होते है जो छिप कर पैसे कमाते है, भष्ट्र आचरण के द्वारा समाज के पैसे को अपनी ओर खीँचते है, व्यवस्था को दूषित करते हैं, अपने दौर को भष्ट्र करते है और अंत में उस सारी समृद्धि को कहीं छिपाकर दुनिया से रवाना हो जाते है. ऐसे लोग न केवल स्वयं की प्रतिभा का गलत इस्तेमाल करते है बल्कि देश या समाज को एक ऐसे युद्ध में झोँक देते हैं, जिसमें जीतने के लिये सभी नीचताएँ की जाती है, जहॉं क्षुद्रता नियम बन जाती है, चापलूसी कानून बन जाती है और जहॉं दिव्यता या भव्यता की कोर्इ संभावना शेष नहीं रह पाती है. इस दुनिया को जितना नुकसान महामारियों या युद्धों में नहीं हुआ है उससे ज्यादा नुकसान नेताओं या सरकारी अफसरों के भष्ट्र दुष्कृत्यों से हुआ है. ऐसा नहीं है कि समाजवाद ने र्इमानदार नेता पैदा ही नहीं किये हो. किंतु बेचारे इन अभागे गिने चुने र्इमानदार नेताओं को उनके ही भष्ट्र अनुयार्इयों या वंशजों ने बाजु में धकिया कर वास्तविक सत्ता को अपने हाथ में ले लेने के कर्इ उदाहरण विश्व इतिहास में भरे पड़े मिलते हैं.

उद्योगपतियों और नेताओं के समृद्धि संचित करने के तरीके भी अलग अलग होते है. जहॉं उद्योगपति की समृद्धि प्रतियोगी बाजार से आती है वहीं नेताओं की समृद्धि एकाधिकार युक्त प्रतिगामी सत्ता और कानूनों से आती है. आप उद्योगपतियों को बाजार में मिटते हुये देख सकते है. वे आसानी से जगह खाली करने के लिये उनके ही प्रतिस्पर्धियों द्वारा मजबूर किये जा सकते है. जबकि नेताओं को हर देश में ताकत बंदूकों या चुनावों से हासील होती हैं. ज्यादातर चुनाव, किये गये कामों से ज्यादा क्षुद्र अस्मिताओं के उपर लड़े जाते हैं. इसलिये जहॉं उद्योगपति समाज को जोड़ते हुये पाये जाते हैं वहीं नेता या अफसर समाज को बॉंटते हुये ही मिलेंगे. आपको कोर्इ उद्योगपति ऐसा नहीं मिलेगा जो भाषा, धर्म, राष्ट्र या जाति के नाम पर अपना उत्पाद बेचते मिलेगा. जबकि ऐसा नहीं करने वाला नेता ढूँढने से भी मिलना मुश्किल है. एक भष्ट्र उद्योगपति सिर्फ अपने व्यापार को डुबा सकता है किंतु एक भष्ट्र नेता एक समूची पिढ़ी के भविष्य को डुबा देता है. एक महान उद्योगपति अपने नये नये व्यापारों से समाज को समृद्ध करते हुये अपने देश के लिये गौरव के अनेकानेक क्षण उपलब्ध कराता है तो एक महान नेता ऐसा वातावरण पैदा कर देता है, जहॉं व्यापार, कला, विज्ञान और साहित्य अपनी चरम उँचार्इयों को छूते हैं.

हमने काफी कुबार्नियों के बाद यह आजादी पायी है. दुर्भाग्य से आजादी के बाद का बेहद कीमती समय सरकारी सार्वजनिक उद्यमों को खड़ा करने में और फिर उन्हें बाजार की प्रतियोगी ताकतों से बचानें में हमने बर्बाद कर दिया है. हमने व्यक्ति के विस्तारवादी सपनों को रोकना चाहा और पैसा कमाने की भावना को राष्ट्रविरोधी माना. नतीजतन हम केवल और केवल बारंबार दरिद्र भारत की ही परिक्रमा करते रहे और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हम अभावों, औसतता और असहनीयता का बीजारोपण करते रहें. हम समृद्धि से चिढ़ते रहे और परिणामस्वरूप समृद्धि हमें चिढ़ाती रही.

आज आजादी की 62 वीं वर्षगांठ पर हम कुछ नये वादे नियति के साथ कर सकते है. हम हमारी राष्ट्रभूमि पर जन्मे प्रत्येक व्यक्ति के सपनों को पूर्ण रूप से विकसीत करने में सहायता का वादा कर सकते है. हम “बेहतरीन से कुछ भी कम नहीं” वाली सोच को अपने जीवन में उतार कर भारतीय जीवन के प्रत्येक अंग में एक विशीष्ट दिव्यता का संचार करा सकते है. हम हमारी भूमि को फिर एक बार गंधर्व, यक्ष और युगपुरूषों की लीलाभूमि बना सकते है. और निश्चित रूप से ऐसा केवल और केवल प्रत्येक मनुष्य के सीमातीत विस्तार को सम्मान और सरंक्षण देने से ही संभव होगा. भारत को उसकी समस्याओं से निजात देने के लिये हमे आज लोकोपकारी पूंजीपतियों की सख्त जरूरत है और साथ साथ हमें जरूरत है उनको जन्म देनेवाली राजनीति की.

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दिनेश शर्मा
15 अगस्ट 2011

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