Thursday 4 August 2011

आरक्षण और अस्मिता

फिल्म निर्माता प्रकाश झा की प्रस्तावित फिल्म आरक्षण को लेकर इस समय महाराष्ट्र जैसे देश के सबसे आधुनिक राज्य के पिछड़े वर्गों के नेता लामबंद हो चुके हैं. ज्योतिबा फुले, शाहूजी महाराज और डॉ. भीमराव अंबेडकर का दिन में पचासों बार नाम लेकर महाराष्ट्र को उनका राज्य बताने वाले ये नेता इस फिल्म के प्रदर्शन के विरूद्ध रणनीति बनाने पर जुटे हैं, जिसमें राष्ट्रवादी के श्री छगन भुजबल और जितेंद्र अव्हाड तथा रिपब्लिकन पक्ष के रामदास आठवले शामिल हैं. बहाना है, समाज की शांति भंग होने का. प्रश्न यह है कि जब वे ही लोग सत्ता में हैं तो कौन शांति भंग करने वाला है?

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमारे संविधान की मूलभूत भावना है, जो युद्ध जैसी स्थिति या आपातकाल के अलावा बाकी के समय में समाज के प्रत्येक व्यक्ति का जन्म सिद्ध अधिकार है. अपनी बात को लेखन, साहित्य, फिल्म या कला के अन्य माध्यमों के द्वारा अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता किसी भी सभ्य समाज के निर्माण की मूलभूत शर्त है. अपने को मिलने वाली सुविधाओं को किसी क्षुद्र अस्मिता से जोड़ कर उस पर उठने वाली हर ऊंगली को तोड़ देना या हर प्रश्न का गला घोँट देने की मानसिकता से इस देश या समाज का कोर्इ भी भला होने वाला नहीं है. आरक्षण की व्यवस्था समाज के कुछ तबकों के लिये आज भी जरूरी हो सकती है, लेकिन उस पर अब कोर्इ बहस हो ही नहीं सकती है, ऐसे दावे करना केवल और केवल तालिबान सदृश्य निजाम में ही संभव है. आरक्षण कोर्इ देववाणी नहीं है कि जिस पर प्रश्न ही नहीं खड़े किये जा सकेंगे. स्वयं डॉ अंबेडकर ने भी उस व्यवस्था को एक अनादि अनंत कालों तक चलने वाली व्यवस्था न मानते हुये केवल अस्थायी रूप दिया था. आज यदि वह महापुरूष जीवित होता तो दलितों के सामाजिक पिछड़ेपन को किसी दूसरे वैकल्पिक तरीके से दूर करने के प्रयासों के बारे में जरूर सोच रहा होता.

महाराष्ट्र आज देश का सबसे प्रगतिशील राज्य है. मुंबर्इ देश की आर्थिक राजधानी है. देश के सबसे ज्यादा मेडीकल, इंजिनइरींग कॉलेज इसी राज्य में हैं. देश के सबसे ज्यादा उद्योग इसी राज्य में हैं. किंतु एक प्रश्न बार बार उठता है कि इस पूरी विकास की गाथा में राज्य का आरक्षित वर्ग कहॉं खड़ा है? इस दौर में जब की सरकार व्यापार या सेवा के क्षेत्रों से पीछे हट रही है, टैक्स वसुली जैसे कर्इ काम नीजि क्षेत्र को सौंपे जा रहे हैं, उस दौर में अपनी अपनी जातियों को आरक्षण के लिये लामंबद करना, क्या उस समाज या जाति के साथ विद्रेाह नहीं है? जब किसी भी समाज की गौरव यात्रा उस जाति के द्वारा पैदा किये गये अविष्कारकों, खोजियों या उद्योगपतियों से तय होने वाली हो, जब समृद्धि ही प्रतिभा को तोलने का पैमाना बन चुकी हो, तब अपनी अपनी जाति की प्रतिभाओं को केवल सरकारी नौकरीयों में झोँकते रहना कहॉं की बुद्धिमानी, कहॉं की जातीय अस्मिता है? ऐसी मूर्खतापूर्ण जातीय अस्मिता से कुछ लोगों का अल्पकालीन फायदा भले ही हो जाये, किंतु वह समाज या जाति सदा के लिये कोल्हू के बैल की तरह अपनी रोजी रोटी की लड़ार्इ लड़ती ही रहेगी.

दो दिन पहले मेरे अमरावती कार्यालय के सामने से लोकशाहीर अन्ना भाऊ साठे की जन्मतिथी के उपलक्ष्य में एक जुलूस निकला. शहर में चारों ओर लोक शाहीर के प्रति सम्मान जताने वाले नेताओं के पोस्टर लगे हुये थे. मेरे मन में एक ही प्रश्न बार बार उठता रहा कि जिस लोकशाहीर की शायरी या गीतों का एक छंद भी उस जुलूस में शामिल व्यक्ति उच्चारण नहीं कर सकता हो, जिसमें फिल्मों के गीतों की धुन पर जुलूस के जवान लड़के नाच गाना कर रहे हो, वह किन अर्थों में लोकशाहीर का सम्मान है? क्या हमने हमारे शाहीरों, कलाकारों या महान सपूतों को जातीय अस्मिता का झंडा या पोस्टर बनाकर उनका अपमान नहीं किया है? क्या अन्ना भाऊ साठे देश के किसी पिछड़े वर्ग में जन्म न लेकर उच्च वर्ण में जन्म ले लेते तो उनकी जन्मतिथी का जुलूस इसी प्रकार का होता और उनकी स्मृति में इतने ही नेताओं के पोस्टर लगते? जिन नेताओं को साने गुरूजी, पु.. देशपांडे या कुसुमाग्रज की जन्मतिथी मालूम न हो, उन्हें अन्ना भाऊ के समान दरिद्रभारत के लोक शाहीर से क्या लेना देना? लेकिन चुनाव और वोटों को दिमाग में रखकर जहॉं साहित्यक सम्मानित हो, जहॉं कलाकारों की कला से ज्यादा उनका जन्मस्थान या जाति मायना रखती हो, उस बेर्इमान दौर के बारे में कुछ भी कहना व्यर्थ है.

आजादी के बाद की समूची पिछड़ी राजनीति अनेकानेक उतार चढ़ावों से होकर गुजरी है. इससे देश को कर्इ क्षेत्रों में जहॉं बेशकीमती फायदे हुये है, वहीं शासकीय सेवा क्षेत्र को इससे कितने फायदे हुये, यह विवाद का विषय है. आज हमारे पास मायावती, नरेंद्र मोदी, गहलोत, मीराकुमार या नितीशकुमार जैसे देश की शान बढ़ाने वाले नेता हैं, जो राजनीतिक प्रवाहों को बदल देने की क्षमता रखते है तो वहीं दूसरी ओर सारा सरकारी सेवा क्षेत्र केवल वेतन ज्यादा और कोर्इ काम नहीं वाले मुफ्तखोरों का करमुक्त झोन बन चुका है. यही लोग जातीय अस्मिता के असली शिल्पकार है क्योंकि मायावती हो या मीराकुमार, देश के सभी नागरिकों के वोट हासील करने के अपने प्रयासों में सभी को साथ लेकर चलने का आभास तो देते ही है. आप उन्हें हटा सकते हैं, उनके प्रतियोगियों से उनकी तुलना कर सकते हैं और उनके बारे में अपनी पसंद या नापसंद को बदल सकते हैं या जाहीर कर सकते है.लेकिन उन शासकीय कर्मचारियों का तो आप कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते जो केवल और केवल अपने पूर्वजों के पिछड़े होने का फायदा लेने को ही जन्मे हैं. एक बार नौकरी पर लगने के बाद ही उनका सारा पिछड़ापन दूर हो जाता है, फिर भी वे जीवन भर अपने पिछड़े होने का रोना रोते रहते है और समाज के बाकी तबकों से यह उम्मीद करते है कि उनके आराम, पर्यटन, छुट्टीयों और सेवानिवृति की व्यवस्था वे लोग करें. वे ना तो राष्ट्रीय संपदा के निर्माण में कोर्इ योगदान करना चाहते हैं, ना ही कोर्इ दूसरा योगदान करे तो उनको प्रोत्साहित करना जानते है. वे ना तो काम करते हैं, ना जगह खाली करते हैं और अपनी सेवानिवृति के दिन तक अर्थात देश की लगभग दो पिढ़ीयों के जीवनकाल तक वे केवल और केवल देश की प्रतिभा, उर्जा और कीमती समय का अपव्यय करते हैं. वे स्वयं तो अपने पालकों को वृद्धाश्रमों में लावारिस छोड़ सकते हैं परंतु बाकी के समाज से यह उम्मीद करते हैं कि उनके बूढ़े मॉं बाप के पिछड़ेपन के पुरस्कार से उन्हें नवाजा जाये, उनके सुखी जीवन की व्यवस्था में बाकी लोग मर मिटे. यही लोग असली खतरा हैं क्योंकि एक बार नियुक्त होने के बाद ये ही लोग देश पर शासन करते हैं. इनके दुष्कर्मो का इलाज किसी के पास नहीं हैं. इस देश को पिछ़डे वर्ग के नेताओं से नहीं, बल्कि इस सरकारी सेवक वर्ग से असली खतरा है क्योंकि इनकी नौकरी की शाश्वत व्यवस्था इन्हें भगवान के बाद सबसे ताकतवर शक्ति बना देती हैं.

आरक्षण का सारा भूत ही इसी नौकरवादी मानसिकता से जन्मा है. जो सबसे बड़ा नुकसान इस भूत ने भारतीय मानसिकता को पहुँचाया है, वह है, जीवन के विकास के बाकी सभी अंगों की अवहेलना. आरक्षण का विरोध करने वाले हो या समर्थन करने वाले, वे सरकारी नौकरीयों के औचित्य पर प्रश्न नहीं उठाते बल्कि वे तो सरकार नाम की यंत्रणा का अपने व्यक्तिगत विकास के लिये कितना शोषण हो सकता है, इसी की जुगाड़ में लगे रहते हैं. कर्इ ऐसे समाजों ने जिन्होंने आजादी के पहले देश में अपने अपने पारिवारिक या जातीय व्यापारों से अपने आपको समाज की मुख्यधारा में बनाये रखा था, इस अंधी दौड़ में अपने उन घरेलु व्यापारों को बंद करके बेकार की शिक्षा और नौकरी की आस में अपने आपको तबाह कर दिया है. आज गॉंवों में स्थानीय काम धंदे लगभग उजड़ चुके हैं.

1991 के बाद देश में जारी बाजारवाद और मुक्त अर्थव्यवस्था के कारण सरकारी विभागों में कुल कितनी नौकरियॉं पैदा हुयी और उसमें से कितनी पिछड़े वर्ग के जवानों से भरी गयी, इस बात का लेखाजोखा आज समाज को बताने की सख्त जरूरत है. वहीं दूसरी ओर नीजि उद्यमों में पिछले दो दशक में पिछड़े वर्ग के कितने जवानों को नौकरियॉं मिली हैं, यह भी देखा जाना चाहिये. रामविलास पासवान जैसे कुछ महाभाग तो बिक चुके सरकारी उद्यमों में भी आरक्षण की वकालत कर रहे थे.यह तो भला हो कि मंडल की जन्म भूमी बिहार ने ही पासवान के राजनीतिक इरादों की कब्र खोद दी, अन्यथा वे तो सरकारी उद्यमों के बाद नीजी उद्यमों का भी सत्यानाश ही कर देते. बगैर काम के वेतन सरकार दे सकती है, व्यापारी नहीं. वहॉं तो यदि आप का काम उनका नुकसान कर रहा हो तो वे तो आपको बाहर का रास्ता बता देंगे.

आरक्षण इस देश की बहुसंख्यक जनता के सामने परोसा जा चुका लॉलीपॉप है. वह एक सनकी राजा के प्रिय मिठ्ठू के समान है जिसकी जान जा चुकी है, किंतु किसी दरबारी में इतना सामर्थ्य नहीं है कि वह उस सनकी राजा को मिठ्ठू की मौत की असलियत बताकर अपनी जान जोखिम में डाले. आज वोट बैंक की राजनीति के कारण कोर्इ भी बहुसंख्यक वर्ग को वास्तविकता बताने की जोखिम लेने को तैयार नहीं है. आरक्षण के पक्ष या विपक्ष में नारे लगाने वाले दोनो ही वर्ग एक ही नाव की सवारी कर रहे हैं. किंतु एक वर्ग ऐसा भी है जो मुक्त अर्थव्यवस्था या प्रतियोगी बाजारवाद को मानने वाला है. आज उस वर्ग का कोर्इ प्रवक्ता संसद या देश की विधानसभाओं में नहीं है. शेतकरी संघटन के अलावा तो आज ऐसा कोर्इ राजनैतिक मंच भी नहीं है, जो जातीय अस्मिता के नजरिये से नहीं बल्कि देश की समूची उत्पादकता को आरक्षण के गलत इस्तेमाल से होनेवाले नुकसान के नजरिये से इस प्रश्न को देखता हो.

मेरा प्रश्न यह है कि केवल हमारे ही देश में सरकारी नौकरी के प्रति इतना आकर्षण क्यों है? क्यों लोग स्वयं के उद्यम, व्यापार या खेती बाड़ी करके अपने लिये और देश के लिये संपत्ति का सृजन नहीं करना चाहते हैं? क्यों लोग सरकारी कार्यालय के कारकून, पोलिस कांस्टेबल या स्कूल के शिक्षक बनने के लिये अपने बाप दादाओं के खेत खलिहान बेच बेच कर गॉंव छोड़ रहे हैं? क्यों लोग मालकी के व्यापार के बजाये दासता को या काम के घंटों की गुलामी को प्राथमिकता दे रहे हैं? इसके पीछे कोर्इ नैतिक आदर्श है या दूसरों की मेहनत की कीमत पर अपने लिये सुविधायें जुटाने की कामचोर मानसिकता?

इसका जवाब विश्व बैंक की एक रिपोर्ट से उजागर होता है. यह रिपोर्ट एशियार्इ देशों में प्रतिव्यक्ति सकल घरेलु उत्पाद की तुलना में सरकारी कर्मचारियों के वेतन का तुलनात्मक ब्यौरा पेश करती है.

देश अनुपात

भारत 7.0 गुणा

.कोरिया 4.8 गुणा

थायलैंड 4.6 गुणा

मलेशिया 3.5 गुणा

फिलीपींस 2.6 गुणा

सिंगापुर 2.3 गुणा

पाकिस्तान 2.1 गुणा

श्रीलंका 2.0 गुणा

इंडोनेशिया 1.7 गुणा

बर्मा 1.6 गुणा

चीन 1.5 गुणा

वियतनाम 1.3 गुणा

इस रिपोर्ट के तथ्य यदि सत्य है तो इस बात में कोर्इ शक ही नहीं है कि भारत सरकार और हमारी सभी राज्य सरकारें अपने अपने कर्मचारियों के लिये गरीब जनता या उत्पादक वर्गों के शोषण से जमा रकम को मुक्त हाथों से लुटा रही है. जो पैसा राष्ट्र के विकास और संरचनागत ढॉंचे के निर्माण पर खर्च होना चाहिये था, उसे वेतन और भत्तों पर लुटाया जा चुका है, लुटाया जा रहा है. जो पैसा दवाखानों के निर्माण और व्यव्स्थापन में लगना चाहिये था, वह डाक्टरों पर खर्च किया जा चुका है. जो रकम देश के प्रत्येक गॉंव में स्कूल कॉलेज खोलने में और विद्यार्थियों को विश्वस्तरीय शिक्षा मुहैया कराने में खर्च होनी चाहिये थी, वह केवल शिक्षकों के वेतन भत्तों पर बर्बाद कर दी गर्इ है. हमारे साम्यवादी जो कि सरकारीकरण के पक्ष में सबसे ज्यादा नारे बाजी करते रहते है, उन्होंने देखना चाहिये कि उनके सपनों का देश, चीन, किस तरह सरकारी कर्मचारियों के वेतन भत्तों को सख्त नियंत्रण में रखता है. क्या हमारे साम्यवादी इस गरीब देश को यह छूट देने को तैयार है?

देश के सरकारी कर्मचारियों के पक्ष में झुका हमारा तंत्र उनका इतना लाड़प्यार करने के बाद उनसे किसी कामकाज की उम्मीद रखने को तैयार नहीं है. कानून बना बना कर उन्हें अजेय बनाया जा रहा हैं और जनता को गुलाम पशुओं से भी बदतर जीवन की ओर धकेला जा रहा है. नतीजतन आज सारे देश में प्रत्येक जाति अपनी अपनी अस्मिता की दुकान खोल कर बैठी हुयी है. देश के स्वाधिनता संग्राम के शहीदों की जातियॉं देखकर उनके बलिदानों का मुल्यांकन किया जा रहा है. दृढ़ इरादे से भरी प्रतियोगिता, संघर्ष और अनथक प्रयास जैसे शब्द हमारी जिंदगी के शब्दकोश से लुप्त होते चले जा रहे हैं और उनके स्थान पर अधिकार, आंदोलन, अस्मिता, उपर की कमार्इ, वकील और कानून जैसे शब्द रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा बन चुके हैं. सारा देश संपत्ति का सृजन करने के बजाये, अपनी सुरक्षा और सुविधा की रक्षा के लिये नजदीक के आदमी का गला काट देने को तत्पर है.

आजादी के बाद के महज छह दशकों की सरकारी नौकरी की लालसा वाली हमारीsaaजीवन शैली नें हमारी नैतिक जीवन शैली की चूलें हिला दी हैं. जो देश मुगलों से लड़ते हुये नहीं हारा था, जिसने अँगे्रजों को बाहर का रास्ता बताने में अपनी सारी शक्ति एकजूट होकर दॉंव पर लगा दी थी, वही महान देश, आज क्षुद्रता और दीनता को राष्ट्र का घोषवाक्य मानकर अपने पुरूषार्थ को तिलांजली दे चुका है. आज हमको निपटाने के लिये किसी बाहरी दुश्मन की जरूरत नहीं है बल्कि हम स्वयं ही अपने महान गौरव के दुश्मन बन चुके है. हर जाति और उपजाति जमीन के नीचे बिछी एक लैंड मार्इन की तरह अपने फूटने के मौके का इंतजार कर रही है. कभी राजस्थान के गुजर फूट जाते है तो कभी विदर्भ के हलबा या गोवारी तिलमिलाते है. कभी कृष्ण को पैदा करने वाली जाट जाति का आंदोलन रेल और रास्ते रोक देता है तो कहीं महाराष्ट्र के गौरव गान के लिये सारे देश को अपने घोड़े की टापों से कंपायमान कर देने वाले मराठा आंदोलित हो जाते हैं. एक दौर के बादशाहों औरसमा्रaटों के ये वंशज आज मानो दीनता और हीनता की यात्रा पर चल पड़े हो. जो कल तक संस्कृति के पहरेदार थे, वे आज एक अदद सरकारी नौकरी की लालसा में अपने ही वैभव से भरे इतिहास से नाता तोड़ चुके हैं.

इसलिये आज आरक्षण के विरूद्ध आंदोलन करने के बजाये सरकारी कर्मचारियों की बेशुमार बड़ी हुयी आय के विरूद्ध आंदोलन करने की जरूरत है. एक प्रथम श्रेणी के सरकारी कर्मचारी का वेतन देश के प्रतिव्यक्ति सकल घरेलु उत्पाद के तीन गुना और द्वितीय क्षेणी के किसी भी कर्मचारी का वेतन दो गुना से ज्यादा नहीं होना चाहिये.आप सिर्फ उनके वेतन का संबंध देश के प्रतिव्यक्ति घरेलु उत्पाद से जोड़ दिजीये और फिर देखीये लोग अपनी अपनी जातीय अस्मिता को विसर्जित करके किस तरह बाप दादाओं के काम धंदों की ओर लौटने लगेंगे. किसी भी सरकारी कर्मचारी को जीवन भर के लिये देश के उत्पादक समाज के द्वारा पाला पोसा जाना जरूरी नहीं है, उसने भी तो कभी न कभी दूसरों की चिंता करनी चाहिये. अत: उनकी नौकरी की अधिकतम समय सीमा दस वर्षों की होनी चाहिये, जिसमें उनके एक या दो से ज्यादा स्थानांतरण नहीं होने चाहिये ताकि वे केवल और केवल अपने कामकाज पर ध्यान दे सकें. इन दस वर्षों में देश के सकल घरेलु उत्पाद की तुलना में वेतन वृद्धि इत्यादि उन्हें दी जानी चाहिये. उन्हें अपना कामकाज पूरा करने की पूरी छूट होनी चाहिये और राजनीतिक दलों के बिगड़े हुये दलाल किस्म के कार्यकर्ताओं से उनकी पूरी सुरक्षा होनी चाहिये. हर तरीके से सरकारी नौकरी को ज्यादा जिम्मेदारीपूर्ण और तुलनात्मक रूप से कम वेतन भत्तों वाला बनाया जाना चाहिये. इस तरीके से जो सरकारी तिजोरी की बचत होगी, उससे देश में आधारभूत संरचना, स्कूल कॉलेज,दवाखाने, धर्मशालायें, समाजभवन इत्यादि खड़े किये जाने चाहिये ताकि लोगों की प्रतिभा, शिक्षा और सामाजिक सरोकारों की रक्षा हो सकें. बेरोजगारों को शून्य ब्याज की दर पर पॉंच से दस वर्षों के लिये कर्ज मुहैया कराये जाने चाहिये ताकि समाज में स्वयं रोजगार के द्वारा संपत्ति का सृजन करने वाली र्इमानदार प्रजाति का फिर से जन्म हो सकें.

राजनीति के क्षेत्र में पिछड़े वर्ग के नेताओं का स्वागत होना ही चाहिये. जैसा कि मैंने पहले ही कहा है, वे प्रतियोगी चुनावी व्यवस्था के रास्ते से आते हैं, अत: मुख्य मंच पर उनका आगमन एक राष्ट्र के रूप में हमको मजबूत करता है और देश में यत्र तत्र फैले जातिवाद को कम करता है. जब इथियोपिया में जन्मे श्याम वर्ण के ओबामा संयुक्त राज्य अमेरिका के अध्यक्ष बन सकते हैं, तो मायावती या नरेंद्र मोदी भारत का नेतृत्व क्यों नहीं कर सकते हैं? निश्चित रूप से ऐसे नेता हमारे आज के जड़विहीन, बलहीन, और तो और लज्जाहीन हो चुके नेताओं के मुकाबले देश को ज्यादा काबिल नेतृत्व दे सकेंगे. वे किसी श्रद्धांजली सभा के द्वारा चुने गये न होकर,देश की लोक सभा द्वारा चुने गये होंगे. वे किसी गैर जिम्मेदार युवराज के जिम्मेदार होने की प्रतिक्षा में टार्इमपास करने वाले सरकारी अफसर न होकर, देश के समय और प्रतिभा का सर्वोत्तम सदुपयोग करने वाले, संघर्षों में तपे तपाये जमीन से जुड़े वास्तविक नेता होंगे.

और निश्चित रूप से ऐसा समाज किसी सिनेमा या साहित्य से डरने वाला या अस्मिता की चीख पुकार करने वाला तो नहीं ही होगा बल्कि इसमें कोर्इ शक ही नहीं है कि वह अत्याधुनिक नजरिये से दुनिया को देखने का माद्दा रखेगा. वहॉं महान साहित्यकारों का साहित्य आने वाली पिढ़ीयों को नया आत्मविश्वास देगा और जीवन को जोड़नेवाली शक्तियों की मजबूत करेगा. वहॉं तर्क मुक्त होगा और बहुमत अपनी शक्ति और सामर्थ्य को समय और स्थान की सीमा को पार करने वाली संस्कृति के निर्माण में खर्च करेगा. वहॉं हमारे भीतर की दिव्यता दूसरों केा दीनता और हीनता से उपर उठने के लिये प्रेरित करेगी. वह निर्णायक रूप से एक ऐसा राष्ट्र होगा, जहॉं मनुष्यता अपनी प्रतिभा, कला और भावनाओं की चरम उँचार्इयों को छुयेगी. केवल और केवल उस मोड़ पर हम सही अर्थों में कह सकेंगे, कि:-

भारत मेरा देश है.

सभी भारतीय मेरे भार्इ बहन है.

मुझे अपने देश से प्यार है और इसकी समृद्ध विरासत पर गर्व है.

जय हिंद.

दिनेश शर्माA, Amar

9326841924


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