Monday, 29 August 2011

One of electoral reform !!

Equal right-opportunity-benefit to Ruling party-Opposition-people. Is it possible?

What are our sufferings?

Parliament is elected once in 5 years.

Once elected, people have no right in decision making, however correct they may be. There is no control if opposition fails to expedite its duties.

We can not call back wrong doers.

Elections are fought on then issues. The country may face unexpected issues in between to deal. All of, Ruling party-Opposition-people have to take entire new positions on such issues, which may be the need of the time.

Elections are held at a same time in such a big country with wide geographical variations, different political, social, economical conditions & priorities. The unmanageable frenzy creates lot of problems & irregularities.

Election Commission has limited capacities in all respects, has to take local administrative help, which likely to invite malpractices in elections.

Suddenly media is loaded with such heavy news, happenings, information, that it is likely to miss important focus. Because of scarcity of space malpractices like paid news erupt.

Common man is likely to be confused easily. His inability to take proper decision may lead to personal gratifications & the whole purpose of democracy is lost.

Our political concerns & awareness is active only during election periods. Once they are over we don’t think we are concerned & link ourselves with our responsibilities.

It is likely to have a situation where national opinion is of prime important. Why to have referendum occasionally? Regular referendum is essential for participatory democracy.

Election commission has to create its own infrastructure & manpower easily which can expedite the elections fairly & effectively.

The Revolutionary Election Reform. Why & how ?

If we make some evolutionary changes in our election program of well planned elections through out 5 years, electing 9 MPs from different constituencies every month spread evenly through out the country.

Simply divide the 5 year tenure of parliament in 60 months slot.

We have 540 MPs. Select any 9 constituencies every month, geographically balanced in all states to declare the elections.

Every month 9 MPs, every year 108 & every 5 yrs 540 MP will be elected. so by the time next turn comes, the elected MP should have completed his tenure of 5 years. Representation is not hampered.

The entire country can focus on 9 elections. Declare elections one month before. Finalize nominations in 1st week. Campaign in 2nd & 3rd week. Voting & declaring result in 4th week, so you are ready for another 9 elections next month.

We can have representative referendum all the times in a year all the times by these parliamentary elections.

Election commission will be happy with lessened burden of having few elections at a time in such a widespread country, so that they can exercise their duty in most effective manner.

Political parties also can take proper positions & concentrate properly on their manifestos to reach people effectively.

The parliament will be constantly in touch with all the problems at all the time & entire country can respond to them at a time during these elections.

People will also have opportunity to revise their votes on different issues. Voting will increase.

Government will be constantly under pressure to prove its majority, so they will have to take proper decisions to maintain their number.

This will curb aayaram-gayaram culture. Co-aliation politics will end.

There will be fair competition in elections. Law & order will be much manageable with our restricted forces.

A significant in-depth discussion on media will help voters to make their decisions.

Incoming fresh youth leadership does not have to wait for 5 years to enter politics as their career.

Outside changes will be rightly & timely reflected in parliament. Easier for political parties too, to use their limited resources & leadership. This will enhance the long awaited democratization of our country.

Only problem is that we can not call 4th ,5th or 6th parliament. Because their will be always 540 MPs of different tenure will be present at all the times.

Tuesday, 16 August 2011

अड. दिनेश शर्माके मौलिक विचार



हमें क्या चाहिये?
लोकोपकारी पूंजीपति या भष्ट्र राजनेता, अफसर

कुछ ही दिन पहले अमेेरिका से एक खबर आयी कि वहॉं के सबसे धनवान निवेशक वारेन बुफेट ने बिल गेटस् फांऊडेशन को कोेर्इ 31 बिलीयन डालर दान में दिये. प्रसिद्ध उद्योगपति राकफेलर ने आज से एक शतक पहले अपनी समूची जायदाद लाकोपयोगी कामों के लिये समर्पित कर दी थी. दुनिया का सबसे महान नर्तक माइकल जैक्सन तो एक महान दानी था ही. इधर हमारे देश में भी विप्रो के प्रमुख अजीम प्रेमजी ने कोर्इ 2 बिलीयन डॉलर, अर्थात लगभग 9 हजार करोड़ रूपये, देश के शैक्षणिक कामों के लिये अपने ही नाम से बनाये अजीम प्रेमजी फॉंऊडेशन को दान में दे दिये. उद्योगपति जब दान कर रहे हो तो संत कैसे पिछे रहते. दक्षिण भारत के प्रसिद्ध आध्यात्मिक संत स्व. सत्य श्रीसार्इबाबा ने आंध्रप्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु की सरकारों को जलपूर्ति की व्यवस्था और राज्यों के शैक्षणिक विकास के लिये अरबों रूपये दान में दे दिये. उनके लोकोपयोगी कामों से प्रभावित होकर तमिलनाडु के भूतपूर्व मुख्यमंत्री करूणानिधी जैसे नास्तिक भी उनके भक्त हो गये. आप किसी भी शहर का दौरा लगाकर आ जार्इये. शहर के सबसे बड़े मंदिर, धर्मशालायें, स्कूल, समाज भवन या पुस्तकालयों के सामने आपको उन्हीं लोगों के नाम मिलेंगे जिन्होंने पहले तो पैसा कमाने के लिये जी तोड़ मेहनत की, दूर देशों की यात्राएँ की, अपने प्रतिस्पर्धियों से निपटने के लिये सभी चालाकियॉं की और बाद में अपनी हासिल संपत्ति का एक बड़ा हिस्सा दान में दे दिया. जितनी खुशी से उन्होंने पैसा कमाया, उससे दुगुनी खुशी से उसे त्याग भी दिया.

ऐसे में एक प्रश्न खड़ा होता है कि हम पैसा क्यों कमाना चाहते है? हम समृद्धि के शिखर क्यों छूना चाहते है? हम सब कुछ त्याग कर इस नश्वर जगत में प्रसिद्ध क्यों होना चाहते है? हमारी अमरत्व की कामना क्या हमारे डीएनए का ही हिस्सा है या वह हमारा सांस्कृतिक मूल्य है? अमरत्व की इसी कामना के लिये कोर्इ संगीतकार संगीत की नयी नयी धुनें रचता है तो कोर्इ अभिनेता अनगिनत भूमिकाओं में स्वयं को प्रस्तुत करता है. कोर्इ सचिन टेडुंलकर बीस सालों से अबाधित रूप से खेलते हुये नये नये विश्व रिकार्ड बनाता है तो कोर्इ साहित्यिक जीवन के अनेकानेक अंगों और रसों में अपनी वाणी को अभिव्यक्त करता चाहता है. एक राजा नये नये क्षेत्र जीत कर अपने राज्य की सीमाओं को बढ़ाता है तो एक संत अपने ज्ञान, विवेक और प्रेम से अपने कृपाभिलाषी भक्तों की संख्या बढ़ाता है.

र्इश्वर तो हमें बस एक बूँद के रूप में भेज देता है किंतु हम है कि एक महासागर की तरह फिर से उसमें विलीन होना चाहते हैं. उसने हमें एक बीज के रूप में भेजा था, हम किसी विराट जंगल की तरह उसे पाना चाहते हैं. विस्तार की हद तक विस्तार करते हुये बिखर जाना और सदा के लिये आनेवाले वक्त की स्मृतियों का हिस्सा बन जाना, अनादि अनंत कालों से मानवीय विकास की सबसे महान प्रेरणा रही है. हमारा प्रेम हमारे विस्तार को सहारा, प्रेरणा या दिशा देता है, इसीलिये हम प्रेम करते है, अन्यथा हम प्रेम भी क्यों करते? हम विस्तारित होने के लिये प्रेम करते है या प्रेम करने के लिये विस्तारित होते है, यह प्रश्न अपने आप से पूछिये. एक ही उत्तर मिलेगा, हमारे विस्तार के लिये प्रेम जरूरी है. प्रेम तो वह रथ है जिसमें बैठ कर हम जाना तो कहीं और चाहते है. हमारा प्रेम हमारी यात्रा को चिरस्मरणीय बना देता है, इसीलिये हम प्रेम पाना चाहते है और प्रेम देना चाहते है. किंतुु मूलभूत प्रेरणा तो अपनी सीमाएँ दसों दिशाओं में बढ़ाने की ही होती है. हम भाषा, क्षेत्र, जाति या देशों की सीमाओं को लांघकर फैलना चाहते है. नये दोस्तों से हाथ मिलाना या नये प्रतिस्पर्धियों से दो हाथ करना चाहते है. और फिर, विजय के चरम बिंदु पर हमने जो कुछ भी हासिल किया है, उससे मुक्त हो जाना चाहते है. हम स्वयं को बार बार रिक्त कर देते है ताकि नयी उर्जा के लिये अपना पात्र खाली रह सके. पुराने जमाने के ऐसे कर्इ राजाओं के किस्से आपको पुराणों में मिल जायेंगे, जिन्होंने पहले तो अश्वमेध यज्ञ के द्वारा अपने राज्य का विस्तार किया और फिर उसी यज्ञ की समाप्ति पर अपनी सारी संपदा दान में देकर फिर से रिक्त हो गये. फैलना और फिर रिक्त हो जाना, हमारे जीवन को सदा के लिये तरोताजा उर्जावान बनाकर रखनेवाला टॉनिक रहा है. अनादि अनंत कालों से मानवता इसी तरह से जिंदा रही है. जो फैलता नहीं है वह तो नष्ट होता ही है किंतु जो रिक्त नहीं होता है, वह भी अपने ही बोझ से चरमरा जाता है. जिंदगीं को अभावों ने जितना समृद्ध किया है, रिक्तताओं ने जितना भरा है, उतना मुफ्त का खिलाने से या समानता के नारे ने नहीं किया है. भारत के ब्राह्मणों को तो सदा से बनियों के घर से अनाज मुफ्त मिलता रहा किंतु इससे कभी उनकी गरीबी दूर नहीं हुयी. दरिद्र सुदामा केवल कृष्ण के जमाने की ही वास्तविकता नहीं थी बल्कि हर युग की वास्तविकता रही है और रहेगी.

जनता की गरीबी दूर करने के लिये दुनिया के कर्इ देशों में कल्याणकारी राज्य की स्थापना पर जोर दिया और पैसा कमाने के सभी नीजि प्रयासों को हतोत्साहित किया गया. किसी उद्योगपति के सीमातीत विस्तार को राष्ट्रविरोधी कृत्य माना गया. हमारे भूतपूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू तो लाभ की संकल्पना से ही घृणा करते रहे और नीजि उद्यमों को दुनिया भर के लायसेंस, कोटा और इंस्पेक्टरों के जाल में जकड़ने में अग्रगामी बने रहे. उन्होंने उद्योगपतियों के उपर ज्यादा से ज्यादा कर लगाकर जमा रकम से सरकारी उद्यमों की स्थापना की और उन्हें देश के नये तीर्थ कहा. उनकी कन्या इंदिराजी ने उनके विचारों को आगे बढ़ाने में उनसे भी ज्यादा कट्टरता का परिचय दिया और सभी नीजि बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया. परिवहन, उर्जा निर्मिती, शिक्षा, संचार और आधारभूत संरचना के क्षेत्र में व्यक्तिगत निवेश के लिये कोर्इ जगह ही नहीं रखी गयी. “व्यक्ति” यह समाज या राष्ट्र के विरूद्ध है, इसी बात को सत्य मानते हुये व्यक्ति के फैलाव या विस्ताार को कुंठित करने में कोर्इ कसर बाकी नहीं रखी गयी. नतीजतन यह देश केवल चालीस सालों में प्रतिभा और प्रयासों से कंगाल हो गया. जिनमें फैलने का सामर्थ्य था, उनके कदमों में जंजीरें थी और मुफ्त का माल खिलाने वाली सरकारी योजनाओं ने हर गॉंव में सुदामा प्रवृति के लोगों के समूह बना दिये. सुदामा इसलिये नहीं फैला कि उसे मुफ्त का माल मिल रहा था और कृष्ण इसलिये नहीं फैला कि उसके द्वारका से बाहर जाने पर पाबंदी थी. नतीजतन पैसे वाले अपने पैसे छिपाने लगे और दरिद्र रेखा के नीचे जाना सम्मान का सूचक बन गया. दानशूरता बीते जमाने की बात हो गयी और दिवालिया होना शर्म की बात नहीं रही. जो काला धन ब्रिटीश सत्ता में कहीं नहीं था वही आजादी के बाद हमारी अर्थनीति और राजनीति को नियंत्रित करनेवाली सबसे निर्णायक शक्ति बन गया. नतीजा बेहद दारूण रहा. हिंदुस्थान की प्रतिभा को जितना नुकसान मुगलों या अंगे्रजो की सामूहिक सत्ता ने नहीं पहुँचाया, उतना नुकसान नेहरू और इंदिरा की अर्थनीति ने पहुँचा दिया. ये दोनों नेता व्यक्तिगत रूप से बेहद र्इमानदार थे. इनके विरोधी भी इनका सम्मान करते थे. नेहरू जहॉं हमारे स्वाधिनता समर के लोकप्रिय नेता और बेमिसाल लेखक थे वहीं इंदिराजी बेहद बहादुर नेता थी और विश्व राजनीति में अपना रूतबा रखती थी. किंतु प्रत्येक मनुष्य में अंतर्भूत विस्तार की र्इश्वरीय प्रेरणा का ही गला घोँट देने की अपनी नीतियों के कारण, वे दोनों, उनको मिले स्वर्णिम अवसर को तबाह कर देने के अपराधी माने गये.

उद्योगपति गरीबों को लूटकर धनवान बनते है यह केवल एक मिथक है, सच्चार्इ नहीं है. वास्तव में प्रत्येक उद्योगपति अपने दौर की वस्तु या सेवा से जुड़ी किसी न किसी आवश्यकता को बाजार में प्रचलित कीमत से कम कीमत पर उपलब्ध करा कर ही पैसा बनाता है. यदि वह पहले से उपलब्ध सेवा या वस्तु को ज्यादा कीमत पर बेचेगा तो उसे कौन खड़ा करेगा? इसलिये वह प्रतियोगी मूल्य पर अपने उत्पाद प्रस्तुत करता है. इसके लिये वह नयी टेक्नालॉजी का उपयोग करके अपने उत्पाद का उत्पादन और विपणन खर्च कम करता है और सस्ती से सस्ती दरों पर अपने उत्पाद बाजार में प्रस्तुत करता है. अपने इस प्रयास में वह दो तरह से समाज को समृद्ध करता है. एक तरफ तो वह नये रोजगार निर्मित करता है वहीं दूसरी ओर वह अपने उत्पाद खरीदने वालों की कुल बचत को बड़ा कर उन्हें दूसरी वस्तुओं या सेवाओं को खरीदने का अवसर देता है. नतीजतन बाजार में वस्तु की कुल मॉंग बड़ती रहती है और सभी समृद्ध होते रहते है. उसका मुकाबला कहीं भी उस गरीब से नहीं है जिसको बचाने के लिये सारी सरकारी मशिनरी या नेता खड़े है. उद्योगपति का मुकाबला तो किसी जमे जमाये पुराने उद्योगपति से ही होता है. सारी सरकारी मशिनरी गरीब को बचाने का नारा लगाती है पर बचाती तो वह उस पुराने उद्योगपति को ही है.

दुनिया के जिस जिस देश में सरकारों की कल्याणकारी योजनायें हावी रही है, वहॉं वहॉं पर पुराने उद्यमों को बचाने के लिये नये उद्यमों के लिये दरवाजे बंद कर दिये गये. पुरानेपन के एकाधिकार को सरकारी समर्थन दिया गया. लोगों को मँहगी कीमतों पर वस्तु या सेवा खरीदने के लिये मजबूर कर दिया गया. गरीबों को नयी टेक्नालॉजी से होनेवाली संभावित बचत से इस उल्टे तरीके से वंचित कर दिया गया. और यह सभी कुछ उनको बचाने के नाम पर किया गया. इसलिये इस बात में कोर्इ दम ही नहीं है कि आजादी के बाद गरीब और गरीब और अमीर और अमीर होते चले गये. जिसतरह सचित टेंडूलकर के रिकार्ड में जुडनेवाला कोर्इ भी नया रन किसी दूसरे के हिस्से का रन नहीं होता, जिसतरह अमिताभ बच्चन का प्रत्येक नया रोल या भूमिका किसी दूसरे का शोषण करने से नहीं जन्मती, जिसतरह स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर का प्रत्येक नया गीत केवल उन्हीं को ध्यान में रखकर लिखा जाता है, जिसतरह किसी नेता के बहुत ज्यादा वोट से जीतने से किसी देश का नुकसान नहीं होता, और जिसतरह किसी साहित्यकार के बहुत ज्यादा साहित्य रच देने से बाकी के लेखकों का कोर्इ नुकसान नहीं होता है, बस ऐसे ही, किसी भी उद्योगपति के द्वारा कमाये गये प्रत्येक नये पैसे से किसी गरीब का कोर्इ लेना देना ही नहीं है. जो भी आपको ऐसा कहता है वही असली डकैत है. वह गरीब का नाम लेकर, उनके समूह बना बनाकर, उनको एक ऐसे भ्रमजाल में जकड़ लेता है, जिससे उन्हें पिढ़ीयों से मुक्ति नहीं मिल पायी हैं. यही लोग मानवीय प्रतिभा के सबसे बड़े दुश्मन हैं, यही लोग अनादि अनंत चक्रों में चलनेवाले गरीबों के शोषण के शिल्पकार हैं. जहॉं जहॉं कल्याणकारी राज्य का नाटक चला, वहॉं वहॉं पर जनता, गरीब और गरीब होती चली गयी और उद्योगपति समाप्त होते चले गये. वहॉं पर केवल नेता, तस्कर और अफसर ही धनवान से धनवान होते पाये गये हैं. यही कहानी भारत की है, यही सोव्हित रूस, वियतनाम, बर्मा, कंबोडिया, क्यूबा, पौलेंड, चीन या उत्तरी कोरिया की है. जिस किसी व्यवस्था ने मानवीय विस्तार की कामना को कुंठित किया है, उसने वास्तव में मानवता के साथ में सबसे बड़ा विश्वासघात किया है.

महान और धनवान उद्योगपति किसी भी समाज की समृद्धि को बढ़ाते है. वे न केवल स्वयं धनवान बनते है बल्कि अपने समूचे दौर को उपर उठने में सहयोग करते है. वे टेक्नालॉजी को बढ़ावा देते है, वे नये रोजगार का सृजन करते है, वे हमारी कुल बचत को बढ़ाते है और अंत में अपनी समूची समृद्धि को उसी समाज पर लुटा देते है, जिसमें उन्होंने उसे कमाया था़. वे उन मधुमख्खियों की तरह होते है जो सारी दुनिया में घूम घूम कर फूलों से पराग चुनती है, बेहतरीन कुशलता से उस शहद को बचाने के लिये छाते का निमार्ण करती है, उसमें अपनी समृद्धि का संचय करती है और अंत में उसे लुटाकर, रिक्त करके किसी नये उद्यम की तैयारी में लग जाती है. ये उद्योगपति निश्चित रूप से उन समाजवादी नेताओं या सरकारी अफसरों की तरह तो नहीं ही होते है जो छिप कर पैसे कमाते है, भष्ट्र आचरण के द्वारा समाज के पैसे को अपनी ओर खीँचते है, व्यवस्था को दूषित करते हैं, अपने दौर को भष्ट्र करते है और अंत में उस सारी समृद्धि को कहीं छिपाकर दुनिया से रवाना हो जाते है. ऐसे लोग न केवल स्वयं की प्रतिभा का गलत इस्तेमाल करते है बल्कि देश या समाज को एक ऐसे युद्ध में झोँक देते हैं, जिसमें जीतने के लिये सभी नीचताएँ की जाती है, जहॉं क्षुद्रता नियम बन जाती है, चापलूसी कानून बन जाती है और जहॉं दिव्यता या भव्यता की कोर्इ संभावना शेष नहीं रह पाती है. इस दुनिया को जितना नुकसान महामारियों या युद्धों में नहीं हुआ है उससे ज्यादा नुकसान नेताओं या सरकारी अफसरों के भष्ट्र दुष्कृत्यों से हुआ है. ऐसा नहीं है कि समाजवाद ने र्इमानदार नेता पैदा ही नहीं किये हो. किंतु बेचारे इन अभागे गिने चुने र्इमानदार नेताओं को उनके ही भष्ट्र अनुयार्इयों या वंशजों ने बाजु में धकिया कर वास्तविक सत्ता को अपने हाथ में ले लेने के कर्इ उदाहरण विश्व इतिहास में भरे पड़े मिलते हैं.

उद्योगपतियों और नेताओं के समृद्धि संचित करने के तरीके भी अलग अलग होते है. जहॉं उद्योगपति की समृद्धि प्रतियोगी बाजार से आती है वहीं नेताओं की समृद्धि एकाधिकार युक्त प्रतिगामी सत्ता और कानूनों से आती है. आप उद्योगपतियों को बाजार में मिटते हुये देख सकते है. वे आसानी से जगह खाली करने के लिये उनके ही प्रतिस्पर्धियों द्वारा मजबूर किये जा सकते है. जबकि नेताओं को हर देश में ताकत बंदूकों या चुनावों से हासील होती हैं. ज्यादातर चुनाव, किये गये कामों से ज्यादा क्षुद्र अस्मिताओं के उपर लड़े जाते हैं. इसलिये जहॉं उद्योगपति समाज को जोड़ते हुये पाये जाते हैं वहीं नेता या अफसर समाज को बॉंटते हुये ही मिलेंगे. आपको कोर्इ उद्योगपति ऐसा नहीं मिलेगा जो भाषा, धर्म, राष्ट्र या जाति के नाम पर अपना उत्पाद बेचते मिलेगा. जबकि ऐसा नहीं करने वाला नेता ढूँढने से भी मिलना मुश्किल है. एक भष्ट्र उद्योगपति सिर्फ अपने व्यापार को डुबा सकता है किंतु एक भष्ट्र नेता एक समूची पिढ़ी के भविष्य को डुबा देता है. एक महान उद्योगपति अपने नये नये व्यापारों से समाज को समृद्ध करते हुये अपने देश के लिये गौरव के अनेकानेक क्षण उपलब्ध कराता है तो एक महान नेता ऐसा वातावरण पैदा कर देता है, जहॉं व्यापार, कला, विज्ञान और साहित्य अपनी चरम उँचार्इयों को छूते हैं.

हमने काफी कुबार्नियों के बाद यह आजादी पायी है. दुर्भाग्य से आजादी के बाद का बेहद कीमती समय सरकारी सार्वजनिक उद्यमों को खड़ा करने में और फिर उन्हें बाजार की प्रतियोगी ताकतों से बचानें में हमने बर्बाद कर दिया है. हमने व्यक्ति के विस्तारवादी सपनों को रोकना चाहा और पैसा कमाने की भावना को राष्ट्रविरोधी माना. नतीजतन हम केवल और केवल बारंबार दरिद्र भारत की ही परिक्रमा करते रहे और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हम अभावों, औसतता और असहनीयता का बीजारोपण करते रहें. हम समृद्धि से चिढ़ते रहे और परिणामस्वरूप समृद्धि हमें चिढ़ाती रही.

आज आजादी की 62 वीं वर्षगांठ पर हम कुछ नये वादे नियति के साथ कर सकते है. हम हमारी राष्ट्रभूमि पर जन्मे प्रत्येक व्यक्ति के सपनों को पूर्ण रूप से विकसीत करने में सहायता का वादा कर सकते है. हम “बेहतरीन से कुछ भी कम नहीं” वाली सोच को अपने जीवन में उतार कर भारतीय जीवन के प्रत्येक अंग में एक विशीष्ट दिव्यता का संचार करा सकते है. हम हमारी भूमि को फिर एक बार गंधर्व, यक्ष और युगपुरूषों की लीलाभूमि बना सकते है. और निश्चित रूप से ऐसा केवल और केवल प्रत्येक मनुष्य के सीमातीत विस्तार को सम्मान और सरंक्षण देने से ही संभव होगा. भारत को उसकी समस्याओं से निजात देने के लिये हमे आज लोकोपकारी पूंजीपतियों की सख्त जरूरत है और साथ साथ हमें जरूरत है उनको जन्म देनेवाली राजनीति की.

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दिनेश शर्मा
15 अगस्ट 2011

Thursday, 4 August 2011

आरक्षण और अस्मिता

फिल्म निर्माता प्रकाश झा की प्रस्तावित फिल्म आरक्षण को लेकर इस समय महाराष्ट्र जैसे देश के सबसे आधुनिक राज्य के पिछड़े वर्गों के नेता लामबंद हो चुके हैं. ज्योतिबा फुले, शाहूजी महाराज और डॉ. भीमराव अंबेडकर का दिन में पचासों बार नाम लेकर महाराष्ट्र को उनका राज्य बताने वाले ये नेता इस फिल्म के प्रदर्शन के विरूद्ध रणनीति बनाने पर जुटे हैं, जिसमें राष्ट्रवादी के श्री छगन भुजबल और जितेंद्र अव्हाड तथा रिपब्लिकन पक्ष के रामदास आठवले शामिल हैं. बहाना है, समाज की शांति भंग होने का. प्रश्न यह है कि जब वे ही लोग सत्ता में हैं तो कौन शांति भंग करने वाला है?

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमारे संविधान की मूलभूत भावना है, जो युद्ध जैसी स्थिति या आपातकाल के अलावा बाकी के समय में समाज के प्रत्येक व्यक्ति का जन्म सिद्ध अधिकार है. अपनी बात को लेखन, साहित्य, फिल्म या कला के अन्य माध्यमों के द्वारा अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता किसी भी सभ्य समाज के निर्माण की मूलभूत शर्त है. अपने को मिलने वाली सुविधाओं को किसी क्षुद्र अस्मिता से जोड़ कर उस पर उठने वाली हर ऊंगली को तोड़ देना या हर प्रश्न का गला घोँट देने की मानसिकता से इस देश या समाज का कोर्इ भी भला होने वाला नहीं है. आरक्षण की व्यवस्था समाज के कुछ तबकों के लिये आज भी जरूरी हो सकती है, लेकिन उस पर अब कोर्इ बहस हो ही नहीं सकती है, ऐसे दावे करना केवल और केवल तालिबान सदृश्य निजाम में ही संभव है. आरक्षण कोर्इ देववाणी नहीं है कि जिस पर प्रश्न ही नहीं खड़े किये जा सकेंगे. स्वयं डॉ अंबेडकर ने भी उस व्यवस्था को एक अनादि अनंत कालों तक चलने वाली व्यवस्था न मानते हुये केवल अस्थायी रूप दिया था. आज यदि वह महापुरूष जीवित होता तो दलितों के सामाजिक पिछड़ेपन को किसी दूसरे वैकल्पिक तरीके से दूर करने के प्रयासों के बारे में जरूर सोच रहा होता.

महाराष्ट्र आज देश का सबसे प्रगतिशील राज्य है. मुंबर्इ देश की आर्थिक राजधानी है. देश के सबसे ज्यादा मेडीकल, इंजिनइरींग कॉलेज इसी राज्य में हैं. देश के सबसे ज्यादा उद्योग इसी राज्य में हैं. किंतु एक प्रश्न बार बार उठता है कि इस पूरी विकास की गाथा में राज्य का आरक्षित वर्ग कहॉं खड़ा है? इस दौर में जब की सरकार व्यापार या सेवा के क्षेत्रों से पीछे हट रही है, टैक्स वसुली जैसे कर्इ काम नीजि क्षेत्र को सौंपे जा रहे हैं, उस दौर में अपनी अपनी जातियों को आरक्षण के लिये लामंबद करना, क्या उस समाज या जाति के साथ विद्रेाह नहीं है? जब किसी भी समाज की गौरव यात्रा उस जाति के द्वारा पैदा किये गये अविष्कारकों, खोजियों या उद्योगपतियों से तय होने वाली हो, जब समृद्धि ही प्रतिभा को तोलने का पैमाना बन चुकी हो, तब अपनी अपनी जाति की प्रतिभाओं को केवल सरकारी नौकरीयों में झोँकते रहना कहॉं की बुद्धिमानी, कहॉं की जातीय अस्मिता है? ऐसी मूर्खतापूर्ण जातीय अस्मिता से कुछ लोगों का अल्पकालीन फायदा भले ही हो जाये, किंतु वह समाज या जाति सदा के लिये कोल्हू के बैल की तरह अपनी रोजी रोटी की लड़ार्इ लड़ती ही रहेगी.

दो दिन पहले मेरे अमरावती कार्यालय के सामने से लोकशाहीर अन्ना भाऊ साठे की जन्मतिथी के उपलक्ष्य में एक जुलूस निकला. शहर में चारों ओर लोक शाहीर के प्रति सम्मान जताने वाले नेताओं के पोस्टर लगे हुये थे. मेरे मन में एक ही प्रश्न बार बार उठता रहा कि जिस लोकशाहीर की शायरी या गीतों का एक छंद भी उस जुलूस में शामिल व्यक्ति उच्चारण नहीं कर सकता हो, जिसमें फिल्मों के गीतों की धुन पर जुलूस के जवान लड़के नाच गाना कर रहे हो, वह किन अर्थों में लोकशाहीर का सम्मान है? क्या हमने हमारे शाहीरों, कलाकारों या महान सपूतों को जातीय अस्मिता का झंडा या पोस्टर बनाकर उनका अपमान नहीं किया है? क्या अन्ना भाऊ साठे देश के किसी पिछड़े वर्ग में जन्म न लेकर उच्च वर्ण में जन्म ले लेते तो उनकी जन्मतिथी का जुलूस इसी प्रकार का होता और उनकी स्मृति में इतने ही नेताओं के पोस्टर लगते? जिन नेताओं को साने गुरूजी, पु.. देशपांडे या कुसुमाग्रज की जन्मतिथी मालूम न हो, उन्हें अन्ना भाऊ के समान दरिद्रभारत के लोक शाहीर से क्या लेना देना? लेकिन चुनाव और वोटों को दिमाग में रखकर जहॉं साहित्यक सम्मानित हो, जहॉं कलाकारों की कला से ज्यादा उनका जन्मस्थान या जाति मायना रखती हो, उस बेर्इमान दौर के बारे में कुछ भी कहना व्यर्थ है.

आजादी के बाद की समूची पिछड़ी राजनीति अनेकानेक उतार चढ़ावों से होकर गुजरी है. इससे देश को कर्इ क्षेत्रों में जहॉं बेशकीमती फायदे हुये है, वहीं शासकीय सेवा क्षेत्र को इससे कितने फायदे हुये, यह विवाद का विषय है. आज हमारे पास मायावती, नरेंद्र मोदी, गहलोत, मीराकुमार या नितीशकुमार जैसे देश की शान बढ़ाने वाले नेता हैं, जो राजनीतिक प्रवाहों को बदल देने की क्षमता रखते है तो वहीं दूसरी ओर सारा सरकारी सेवा क्षेत्र केवल वेतन ज्यादा और कोर्इ काम नहीं वाले मुफ्तखोरों का करमुक्त झोन बन चुका है. यही लोग जातीय अस्मिता के असली शिल्पकार है क्योंकि मायावती हो या मीराकुमार, देश के सभी नागरिकों के वोट हासील करने के अपने प्रयासों में सभी को साथ लेकर चलने का आभास तो देते ही है. आप उन्हें हटा सकते हैं, उनके प्रतियोगियों से उनकी तुलना कर सकते हैं और उनके बारे में अपनी पसंद या नापसंद को बदल सकते हैं या जाहीर कर सकते है.लेकिन उन शासकीय कर्मचारियों का तो आप कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते जो केवल और केवल अपने पूर्वजों के पिछड़े होने का फायदा लेने को ही जन्मे हैं. एक बार नौकरी पर लगने के बाद ही उनका सारा पिछड़ापन दूर हो जाता है, फिर भी वे जीवन भर अपने पिछड़े होने का रोना रोते रहते है और समाज के बाकी तबकों से यह उम्मीद करते है कि उनके आराम, पर्यटन, छुट्टीयों और सेवानिवृति की व्यवस्था वे लोग करें. वे ना तो राष्ट्रीय संपदा के निर्माण में कोर्इ योगदान करना चाहते हैं, ना ही कोर्इ दूसरा योगदान करे तो उनको प्रोत्साहित करना जानते है. वे ना तो काम करते हैं, ना जगह खाली करते हैं और अपनी सेवानिवृति के दिन तक अर्थात देश की लगभग दो पिढ़ीयों के जीवनकाल तक वे केवल और केवल देश की प्रतिभा, उर्जा और कीमती समय का अपव्यय करते हैं. वे स्वयं तो अपने पालकों को वृद्धाश्रमों में लावारिस छोड़ सकते हैं परंतु बाकी के समाज से यह उम्मीद करते हैं कि उनके बूढ़े मॉं बाप के पिछड़ेपन के पुरस्कार से उन्हें नवाजा जाये, उनके सुखी जीवन की व्यवस्था में बाकी लोग मर मिटे. यही लोग असली खतरा हैं क्योंकि एक बार नियुक्त होने के बाद ये ही लोग देश पर शासन करते हैं. इनके दुष्कर्मो का इलाज किसी के पास नहीं हैं. इस देश को पिछ़डे वर्ग के नेताओं से नहीं, बल्कि इस सरकारी सेवक वर्ग से असली खतरा है क्योंकि इनकी नौकरी की शाश्वत व्यवस्था इन्हें भगवान के बाद सबसे ताकतवर शक्ति बना देती हैं.

आरक्षण का सारा भूत ही इसी नौकरवादी मानसिकता से जन्मा है. जो सबसे बड़ा नुकसान इस भूत ने भारतीय मानसिकता को पहुँचाया है, वह है, जीवन के विकास के बाकी सभी अंगों की अवहेलना. आरक्षण का विरोध करने वाले हो या समर्थन करने वाले, वे सरकारी नौकरीयों के औचित्य पर प्रश्न नहीं उठाते बल्कि वे तो सरकार नाम की यंत्रणा का अपने व्यक्तिगत विकास के लिये कितना शोषण हो सकता है, इसी की जुगाड़ में लगे रहते हैं. कर्इ ऐसे समाजों ने जिन्होंने आजादी के पहले देश में अपने अपने पारिवारिक या जातीय व्यापारों से अपने आपको समाज की मुख्यधारा में बनाये रखा था, इस अंधी दौड़ में अपने उन घरेलु व्यापारों को बंद करके बेकार की शिक्षा और नौकरी की आस में अपने आपको तबाह कर दिया है. आज गॉंवों में स्थानीय काम धंदे लगभग उजड़ चुके हैं.

1991 के बाद देश में जारी बाजारवाद और मुक्त अर्थव्यवस्था के कारण सरकारी विभागों में कुल कितनी नौकरियॉं पैदा हुयी और उसमें से कितनी पिछड़े वर्ग के जवानों से भरी गयी, इस बात का लेखाजोखा आज समाज को बताने की सख्त जरूरत है. वहीं दूसरी ओर नीजि उद्यमों में पिछले दो दशक में पिछड़े वर्ग के कितने जवानों को नौकरियॉं मिली हैं, यह भी देखा जाना चाहिये. रामविलास पासवान जैसे कुछ महाभाग तो बिक चुके सरकारी उद्यमों में भी आरक्षण की वकालत कर रहे थे.यह तो भला हो कि मंडल की जन्म भूमी बिहार ने ही पासवान के राजनीतिक इरादों की कब्र खोद दी, अन्यथा वे तो सरकारी उद्यमों के बाद नीजी उद्यमों का भी सत्यानाश ही कर देते. बगैर काम के वेतन सरकार दे सकती है, व्यापारी नहीं. वहॉं तो यदि आप का काम उनका नुकसान कर रहा हो तो वे तो आपको बाहर का रास्ता बता देंगे.

आरक्षण इस देश की बहुसंख्यक जनता के सामने परोसा जा चुका लॉलीपॉप है. वह एक सनकी राजा के प्रिय मिठ्ठू के समान है जिसकी जान जा चुकी है, किंतु किसी दरबारी में इतना सामर्थ्य नहीं है कि वह उस सनकी राजा को मिठ्ठू की मौत की असलियत बताकर अपनी जान जोखिम में डाले. आज वोट बैंक की राजनीति के कारण कोर्इ भी बहुसंख्यक वर्ग को वास्तविकता बताने की जोखिम लेने को तैयार नहीं है. आरक्षण के पक्ष या विपक्ष में नारे लगाने वाले दोनो ही वर्ग एक ही नाव की सवारी कर रहे हैं. किंतु एक वर्ग ऐसा भी है जो मुक्त अर्थव्यवस्था या प्रतियोगी बाजारवाद को मानने वाला है. आज उस वर्ग का कोर्इ प्रवक्ता संसद या देश की विधानसभाओं में नहीं है. शेतकरी संघटन के अलावा तो आज ऐसा कोर्इ राजनैतिक मंच भी नहीं है, जो जातीय अस्मिता के नजरिये से नहीं बल्कि देश की समूची उत्पादकता को आरक्षण के गलत इस्तेमाल से होनेवाले नुकसान के नजरिये से इस प्रश्न को देखता हो.

मेरा प्रश्न यह है कि केवल हमारे ही देश में सरकारी नौकरी के प्रति इतना आकर्षण क्यों है? क्यों लोग स्वयं के उद्यम, व्यापार या खेती बाड़ी करके अपने लिये और देश के लिये संपत्ति का सृजन नहीं करना चाहते हैं? क्यों लोग सरकारी कार्यालय के कारकून, पोलिस कांस्टेबल या स्कूल के शिक्षक बनने के लिये अपने बाप दादाओं के खेत खलिहान बेच बेच कर गॉंव छोड़ रहे हैं? क्यों लोग मालकी के व्यापार के बजाये दासता को या काम के घंटों की गुलामी को प्राथमिकता दे रहे हैं? इसके पीछे कोर्इ नैतिक आदर्श है या दूसरों की मेहनत की कीमत पर अपने लिये सुविधायें जुटाने की कामचोर मानसिकता?

इसका जवाब विश्व बैंक की एक रिपोर्ट से उजागर होता है. यह रिपोर्ट एशियार्इ देशों में प्रतिव्यक्ति सकल घरेलु उत्पाद की तुलना में सरकारी कर्मचारियों के वेतन का तुलनात्मक ब्यौरा पेश करती है.

देश अनुपात

भारत 7.0 गुणा

.कोरिया 4.8 गुणा

थायलैंड 4.6 गुणा

मलेशिया 3.5 गुणा

फिलीपींस 2.6 गुणा

सिंगापुर 2.3 गुणा

पाकिस्तान 2.1 गुणा

श्रीलंका 2.0 गुणा

इंडोनेशिया 1.7 गुणा

बर्मा 1.6 गुणा

चीन 1.5 गुणा

वियतनाम 1.3 गुणा

इस रिपोर्ट के तथ्य यदि सत्य है तो इस बात में कोर्इ शक ही नहीं है कि भारत सरकार और हमारी सभी राज्य सरकारें अपने अपने कर्मचारियों के लिये गरीब जनता या उत्पादक वर्गों के शोषण से जमा रकम को मुक्त हाथों से लुटा रही है. जो पैसा राष्ट्र के विकास और संरचनागत ढॉंचे के निर्माण पर खर्च होना चाहिये था, उसे वेतन और भत्तों पर लुटाया जा चुका है, लुटाया जा रहा है. जो पैसा दवाखानों के निर्माण और व्यव्स्थापन में लगना चाहिये था, वह डाक्टरों पर खर्च किया जा चुका है. जो रकम देश के प्रत्येक गॉंव में स्कूल कॉलेज खोलने में और विद्यार्थियों को विश्वस्तरीय शिक्षा मुहैया कराने में खर्च होनी चाहिये थी, वह केवल शिक्षकों के वेतन भत्तों पर बर्बाद कर दी गर्इ है. हमारे साम्यवादी जो कि सरकारीकरण के पक्ष में सबसे ज्यादा नारे बाजी करते रहते है, उन्होंने देखना चाहिये कि उनके सपनों का देश, चीन, किस तरह सरकारी कर्मचारियों के वेतन भत्तों को सख्त नियंत्रण में रखता है. क्या हमारे साम्यवादी इस गरीब देश को यह छूट देने को तैयार है?

देश के सरकारी कर्मचारियों के पक्ष में झुका हमारा तंत्र उनका इतना लाड़प्यार करने के बाद उनसे किसी कामकाज की उम्मीद रखने को तैयार नहीं है. कानून बना बना कर उन्हें अजेय बनाया जा रहा हैं और जनता को गुलाम पशुओं से भी बदतर जीवन की ओर धकेला जा रहा है. नतीजतन आज सारे देश में प्रत्येक जाति अपनी अपनी अस्मिता की दुकान खोल कर बैठी हुयी है. देश के स्वाधिनता संग्राम के शहीदों की जातियॉं देखकर उनके बलिदानों का मुल्यांकन किया जा रहा है. दृढ़ इरादे से भरी प्रतियोगिता, संघर्ष और अनथक प्रयास जैसे शब्द हमारी जिंदगी के शब्दकोश से लुप्त होते चले जा रहे हैं और उनके स्थान पर अधिकार, आंदोलन, अस्मिता, उपर की कमार्इ, वकील और कानून जैसे शब्द रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा बन चुके हैं. सारा देश संपत्ति का सृजन करने के बजाये, अपनी सुरक्षा और सुविधा की रक्षा के लिये नजदीक के आदमी का गला काट देने को तत्पर है.

आजादी के बाद के महज छह दशकों की सरकारी नौकरी की लालसा वाली हमारीsaaजीवन शैली नें हमारी नैतिक जीवन शैली की चूलें हिला दी हैं. जो देश मुगलों से लड़ते हुये नहीं हारा था, जिसने अँगे्रजों को बाहर का रास्ता बताने में अपनी सारी शक्ति एकजूट होकर दॉंव पर लगा दी थी, वही महान देश, आज क्षुद्रता और दीनता को राष्ट्र का घोषवाक्य मानकर अपने पुरूषार्थ को तिलांजली दे चुका है. आज हमको निपटाने के लिये किसी बाहरी दुश्मन की जरूरत नहीं है बल्कि हम स्वयं ही अपने महान गौरव के दुश्मन बन चुके है. हर जाति और उपजाति जमीन के नीचे बिछी एक लैंड मार्इन की तरह अपने फूटने के मौके का इंतजार कर रही है. कभी राजस्थान के गुजर फूट जाते है तो कभी विदर्भ के हलबा या गोवारी तिलमिलाते है. कभी कृष्ण को पैदा करने वाली जाट जाति का आंदोलन रेल और रास्ते रोक देता है तो कहीं महाराष्ट्र के गौरव गान के लिये सारे देश को अपने घोड़े की टापों से कंपायमान कर देने वाले मराठा आंदोलित हो जाते हैं. एक दौर के बादशाहों औरसमा्रaटों के ये वंशज आज मानो दीनता और हीनता की यात्रा पर चल पड़े हो. जो कल तक संस्कृति के पहरेदार थे, वे आज एक अदद सरकारी नौकरी की लालसा में अपने ही वैभव से भरे इतिहास से नाता तोड़ चुके हैं.

इसलिये आज आरक्षण के विरूद्ध आंदोलन करने के बजाये सरकारी कर्मचारियों की बेशुमार बड़ी हुयी आय के विरूद्ध आंदोलन करने की जरूरत है. एक प्रथम श्रेणी के सरकारी कर्मचारी का वेतन देश के प्रतिव्यक्ति सकल घरेलु उत्पाद के तीन गुना और द्वितीय क्षेणी के किसी भी कर्मचारी का वेतन दो गुना से ज्यादा नहीं होना चाहिये.आप सिर्फ उनके वेतन का संबंध देश के प्रतिव्यक्ति घरेलु उत्पाद से जोड़ दिजीये और फिर देखीये लोग अपनी अपनी जातीय अस्मिता को विसर्जित करके किस तरह बाप दादाओं के काम धंदों की ओर लौटने लगेंगे. किसी भी सरकारी कर्मचारी को जीवन भर के लिये देश के उत्पादक समाज के द्वारा पाला पोसा जाना जरूरी नहीं है, उसने भी तो कभी न कभी दूसरों की चिंता करनी चाहिये. अत: उनकी नौकरी की अधिकतम समय सीमा दस वर्षों की होनी चाहिये, जिसमें उनके एक या दो से ज्यादा स्थानांतरण नहीं होने चाहिये ताकि वे केवल और केवल अपने कामकाज पर ध्यान दे सकें. इन दस वर्षों में देश के सकल घरेलु उत्पाद की तुलना में वेतन वृद्धि इत्यादि उन्हें दी जानी चाहिये. उन्हें अपना कामकाज पूरा करने की पूरी छूट होनी चाहिये और राजनीतिक दलों के बिगड़े हुये दलाल किस्म के कार्यकर्ताओं से उनकी पूरी सुरक्षा होनी चाहिये. हर तरीके से सरकारी नौकरी को ज्यादा जिम्मेदारीपूर्ण और तुलनात्मक रूप से कम वेतन भत्तों वाला बनाया जाना चाहिये. इस तरीके से जो सरकारी तिजोरी की बचत होगी, उससे देश में आधारभूत संरचना, स्कूल कॉलेज,दवाखाने, धर्मशालायें, समाजभवन इत्यादि खड़े किये जाने चाहिये ताकि लोगों की प्रतिभा, शिक्षा और सामाजिक सरोकारों की रक्षा हो सकें. बेरोजगारों को शून्य ब्याज की दर पर पॉंच से दस वर्षों के लिये कर्ज मुहैया कराये जाने चाहिये ताकि समाज में स्वयं रोजगार के द्वारा संपत्ति का सृजन करने वाली र्इमानदार प्रजाति का फिर से जन्म हो सकें.

राजनीति के क्षेत्र में पिछड़े वर्ग के नेताओं का स्वागत होना ही चाहिये. जैसा कि मैंने पहले ही कहा है, वे प्रतियोगी चुनावी व्यवस्था के रास्ते से आते हैं, अत: मुख्य मंच पर उनका आगमन एक राष्ट्र के रूप में हमको मजबूत करता है और देश में यत्र तत्र फैले जातिवाद को कम करता है. जब इथियोपिया में जन्मे श्याम वर्ण के ओबामा संयुक्त राज्य अमेरिका के अध्यक्ष बन सकते हैं, तो मायावती या नरेंद्र मोदी भारत का नेतृत्व क्यों नहीं कर सकते हैं? निश्चित रूप से ऐसे नेता हमारे आज के जड़विहीन, बलहीन, और तो और लज्जाहीन हो चुके नेताओं के मुकाबले देश को ज्यादा काबिल नेतृत्व दे सकेंगे. वे किसी श्रद्धांजली सभा के द्वारा चुने गये न होकर,देश की लोक सभा द्वारा चुने गये होंगे. वे किसी गैर जिम्मेदार युवराज के जिम्मेदार होने की प्रतिक्षा में टार्इमपास करने वाले सरकारी अफसर न होकर, देश के समय और प्रतिभा का सर्वोत्तम सदुपयोग करने वाले, संघर्षों में तपे तपाये जमीन से जुड़े वास्तविक नेता होंगे.

और निश्चित रूप से ऐसा समाज किसी सिनेमा या साहित्य से डरने वाला या अस्मिता की चीख पुकार करने वाला तो नहीं ही होगा बल्कि इसमें कोर्इ शक ही नहीं है कि वह अत्याधुनिक नजरिये से दुनिया को देखने का माद्दा रखेगा. वहॉं महान साहित्यकारों का साहित्य आने वाली पिढ़ीयों को नया आत्मविश्वास देगा और जीवन को जोड़नेवाली शक्तियों की मजबूत करेगा. वहॉं तर्क मुक्त होगा और बहुमत अपनी शक्ति और सामर्थ्य को समय और स्थान की सीमा को पार करने वाली संस्कृति के निर्माण में खर्च करेगा. वहॉं हमारे भीतर की दिव्यता दूसरों केा दीनता और हीनता से उपर उठने के लिये प्रेरित करेगी. वह निर्णायक रूप से एक ऐसा राष्ट्र होगा, जहॉं मनुष्यता अपनी प्रतिभा, कला और भावनाओं की चरम उँचार्इयों को छुयेगी. केवल और केवल उस मोड़ पर हम सही अर्थों में कह सकेंगे, कि:-

भारत मेरा देश है.

सभी भारतीय मेरे भार्इ बहन है.

मुझे अपने देश से प्यार है और इसकी समृद्ध विरासत पर गर्व है.

जय हिंद.

दिनेश शर्माA, Amar

9326841924